Home कोरबा कुत्तों की नसबंदी में 18.81 लाख खर्च : फिर भी संख्या अनियंत्रित

कुत्तों की नसबंदी में 18.81 लाख खर्च : फिर भी संख्या अनियंत्रित

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कोरबा । कुत्तों की नसबंदी और पकडऩे के अभियान में नगर निगम ने 18.81 लाख खर्च कर दिए। इसके बावजूद भी आवारा कुत्तों की संख्या में कमी नहीं आई है। पिछले ढाई साल से नसबंदी का कार्य बंद है। रात हो या दिन शहर के सडक़ व कालोनियों में झुंड में कुत्तों को घूमते व उनका खौफ बढ़ते ही जा रहा है। कुत्तों की इलाज व नसबंदी सुविधा के लिए 67 वार्डों में एकमात्र पंप हाउस में ही डाग शेल्टर बना है, वह भी पिछले तीन साल से वीरान पड़ा है।
मनुष्य व कुत्तों का आदि काल से साथ रहा है लेकिन विगत कुछ वर्षों से शहर के वार्डों में इनकी बढ़ती संख्या आम लोगों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। रात को अपने ही मोहल्ले में पहुंचने वाले रहवासियों को कुत्तों के झुंड का भय बना रहता है। कुत्तों की बढ़ती संख्या में नियंत्रण रखने के लिए नगरीय निकायों में नसबंदी का भी प्राविधान है। नगर निगम के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार दिसंबर वर्ष 2016 में कुत्तों की नसंबंदी के लिए निविदा जारी की गई थी। जिसमें 10.28 लाख रूपये की स्वीकृति मिली।
नसबंदी का दायित्व जबलपुर की संस्था संजीवनी जन सेवा समिति को दिया गया था। पखवाड़े भर चले अभियान में शहर के 1285 कुत्तों का नसबंदी किया गया। स्वीकृत राशि से एक कुत्ते की नसबंदी पर 582 रूपये खर्च किया गया था। इसके बाद निगम ने वर्ष 2020 के अगस्त में दोबारा नसबंदी अभियान चलाया। इस बार अभियान की राशि घटाकर 828 लाख कर दी गई। नसबंदी का दायित्व एनीमल केयर फाउंडेशन दुर्ग को दिया गया। दूसरे दौर के अभियान में केवल 1285 कुत्तों का ही नसंबदी हुआ। नसबंदी में अधिक समय का अंतराल होने से बढ़ती संख्या पर नियंत्रण नहीं है। वर्ष 2020 में हुए अभियान को ढाई साल से भी अधिक समय हो गया है। संख्या में दिनों दिन हो रही वृद्धि के बाद भी निगम के बजट में अभियान के लिए राशि स्वीकृत नहीं की जा रही। कुत्तों में रेबीज व अन्य बीमारी होने पर उनके उपचार के लिए शेल्टर बनाया जाना चाहिए।
शहर के पंप हाउस में एक मात्र शेल्टर बनाने की औपचारिकता की गई है। दीगर वार्ड के कुत्तों का समय पर इलाज नहीं होता। बीमारी फैलने पर कुत्तों के काटने की घटनाएं होती है। कुत्तों की संख्या में नियंत्रण नहीं होने से कालोनी क्षेत्र के रहवासी हलकान है। कुत्तों के काटने के मामले आए दिन अस्पतालों में देखी जा सकती है।
सरकारी अस्पतालों में दवा की कमी, शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में कुत्तों के काटने की घटना होते रहती है। दवा की कमी के कारण लोगों का समय पर इलाज नहीं होता। जिला अस्पताल के टीबी, मलेरिया, कैंसर सहित विभिन्न बीमारियों के लिए जागरूकता अभियान तो चलाई जाती है लेकिन कुत्तों के काटने पर इलाज सुविधा के लिए अभियान का सतत अभाव देखा जा रहा है। कुत्तों के काटने का शिकार ज्यादातर बच्चे होते हैं। जानकारी के अभाव में लोग झाडफ़ूंक का आश्रय लेते है, जिससे उन्हे जान से भी हाथ धोना पड़ता है।

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